लखनऊ विश्वविद्यालय के सहयोग से कार्यस्थल और सार्वजनिक स्थानों पर महिला सुरक्ष पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के डॉ. राम मनोहर लोहिया पीठ के सहयोग से 26 जुलाई, 2025 को ‘कार्यस्थल और सार्वजनिक स्थानों पर महिला सुरक्षा’ पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का सफलतापूर्वक आयोजन किया। 9 सितंबर, 2024 को आयोजित उद्घाटन संगोष्ठी के बाद, यह इस महत्वपूर्ण विषय पर दूसरी राष्ट्रीय संगोष्ठी थी। यह पहल देश भर में पेशेवर वातावरण और सार्वजनिक क्षेत्र दोनों में महिलाओं के खिलाफ अपराध की बढ़ती घटनाओं को संज्ञान में लेकर की गई।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वी. रामसुब्रमण्यन ने वर्चुअल माध्यम से मुख्य भाषण देते हुए, भारत में देवियों के प्रति सांस्कृतिक श्रद्धा और महिलाओं के खिलाफ हिंसा की भयावह वास्तविकता के बीच के अंतर पर प्रकाश डाला और बताया कि हर घंटे ऐसे अपराधों से संबंधित लगभग 51 एफआईआर दर्ज की जाती हैं। उन्होंने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न निवारण अधिनियम, 2013 को लागू करने के पीछे के लंबे संघर्ष को याद किया और इस बात पर बल दिया कि शिक्षा और करियर में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद, न्यायमूर्ति रामसुब्रमण्यन ने महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करने के लिए जागरूकता बढ़ाने, मजबूत प्रवर्तन तंत्र और व्यवस्थागत बदलावों का आग्रह किया।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की संयुक्त सचिव श्रीमती सैदिंगपुई छकछुआक ने संगोष्ठी के आयोजन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला और अपने व्यक्तिगत अनुभव बताते हुए कहा कि कैसे व्यापक कानूनी ढांचे के होते हुए भी, लिंग आधारित हिंसा की दैनिक रिपोर्टें जारी रहती हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, भारत मानव अधिकार उल्लंघन के ऐसे मुद्दों का शीघ्र समाधान करने के लिए सक्रिय कदम उठाता है। उन्होंने आशा व्यक्त की कि आने वाली पीढ़ियां महिला अधिकारों के संबंध में अधिक मुखर और क्रियाशील होंगी। श्रीमती छकछुआक ने शिक्षकों से सभी की गरिमा बनाए रखने के लिए लैंगिक मुद्दों के प्रति अधिक संवेदनशील होने का आह्वान किया और कहा कि सभी अपराध खुले तौर पर हिंसक नहीं होते। उन्होंने नीति, प्रवर्तन और जन जागरूकता पर बल देने का आग्रह किया।
लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एसके चौधरी ने बल देकर कहा कि स्वतंत्रता और समानता के अधिकार भारतीय संविधान में निहित हैं। हालांकि, उन्होंने उल्लिखित किया कि केवल जागरूकता ही काफी नहीं है—लोगों में अपराधों की रिपोर्ट करने का आत्मविश्वास भी होना चाहिए। उन्होंने समाज में संरचनात्मक समायोजन का आह्वान किया और मानवाधिकारों की संस्कृति को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया जो दैनिक व्यवहार में परिलक्षित हो। दिल्ली विश्वविद्यालय, जनजातीय अध्ययन केंद्र के निदेशक और मानव विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रोफेसर एस.एम. पटनायक ने सार्वजनिक स्थानों पर उत्पीड़न पर एक सामाजिक-मानवशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि कैसे पितृसत्ता और गुमनामी लैंगिक हिंसा को मजबूत करते हैं। कार्ल सागन को उद्धृत करते हुए—“साक्ष्य का अभाव, अनुपस्थिति का प्रमाण नहीं है”, उन्होंने यह मानने के प्रति आगाह किया कि आंकड़ों की कमी यह संकेत देती है कि समस्या कम हो गई है।
लखनऊ विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. पीके गुप्ता ने महिलाओं के खिलाफ घरेलू अपराधों की व्यापकता की ओर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर व्यवहार संबंधी पैटर्न को संबोधित करने की आवश्यकता पर बल दिया और इस बात पर जोर दिया कि व्यापक सामाजिक प्रभाव के लिए बदलाव की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए।
उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के अध्यक्ष डॉ. एस.एन. सबत ने महिलाओं की गरिमा को बनाए रखने वाले मौजूदा कानूनी तंत्रों पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने महिलाओं की सुरक्षा, विशेषकर शहरी क्षेत्रों में, को मजबूत करने के लिए उभरती तकनीकों और निगरानी प्रणालियों में निवेश की आवश्यकता पर बल दिया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रो. नीलिका मेहरोत्रा ने महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में बताया। उन्होंने संदर्भ-संवेदनशील समाधानों की आवश्यकता पर बल दिया और कानून प्रवर्तन और न्यायपालिका में अधिक संवेदनशीलता का आह्वान किया, और ‘‘सब पर एक जैसा प्रभाव’’ वाले दृष्टिकोण के विरुद्ध तर्क दिया।
वक्ताओं ने व्यवस्थागत अन्याय, लैंगिक रूढ़िवादिता और संस्थागत जड़ता पर बात की जो संवैधानिक गारंटियों की प्राप्ति में बाधक हैं। कानूनी जागरूकता, सक्रिय सरकारी हस्तक्षेप और निर्णय लेने वाली संस्थाओं में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता पर जोर दिया गया। वैश्विक स्तर पर और भारत में मानव और महिला अधिकारों के विकास पर भी चर्चा की गई, साथ ही इस बात पर भी चर्चा की गई कि भारतीय संवैधानिक प्रावधान मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के साथ कैसे संरेखित होते हैं। कई वक्ताओं ने शी-बॉक्स, वन स्टॉप सेंटर और पिंक पुलिस बूथ जैसी उपलब्ध व्यवस्थाओं और पहलों पर भी प्रकाश डाला।
संगोष्ठी से प्राप्त कुछ प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं:
1. नीति-निर्माण, कार्यान्वयन और जागरूकता बढ़ाने के तीनों मोर्चों पर महिला सुरक्षा के मुद्दे को हल करने के लिए एक ठोस और लक्षित प्रयास की आवश्यकता है।
2. महिलाओं की सुरक्षा के बारे में बातचीत में अनौपचारिक क्षेत्र को शामिल करने की आवश्यकता है और विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र में लक्षित जागरूकता अभियान की आवश्यकता है।
3. व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर संवेदनशीलता की आवश्यकता है ताकि कार्यस्थल और सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आ सके।
4. यह सिफारिश की जाती है कि राज्य महिलाओं के लिए समावेशी स्थानों का निर्माण सुनिश्चित करे, विशेष रूप से निर्णय लेने वाले निकायों में, ताकि संरचनात्मक परिवर्तन लाया जा सके।
5. यह सिफारिश की जाती है कि शैक्षणिक संस्थान सक्रिय कदम उठाएं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि छात्रों को विभिन्न लिंग-संबंधी मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाया जाए, साथ ही उन्हें विपरीत लिंग से जुड़ी स्थितियों में कैसे व्यवहार करना चाहिए, इसके बारे में भी जागरूक बनाया जाए।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, भारत ने लिंग आधारित हिंसा से निपटने और महिलाओं के लिए अधिक सुरक्षित, अधिक समावेशी सार्वजनिक और व्यावसायिक स्थान बनाने के लिए संस्थानों में सहयोगात्मक प्रयासों को मजबूत करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की।