यमुना की दुर्गम वादियों में अलौकिक शक्तियों की अनुभूति कराता लोमश ऋषि का आश्रम
Report : विजय द्विवेदी
कुठौंद, जालौन । यमुना नदी की दुर्गम वादियों में पौराणिक संत लोमश ऋषि की तपोस्थली एवं आज भी उन्हीं के नाम से पहचाने जाने वाला आश्रम अदृश्य अलौकिक शक्तियों की उपस्थिति की अनुभूति कराता हैं।
जनपद जालौन में पंचनद संगम तीर्थ से कालपी तक यमुना नदी के तीर-तीर अनेक प्राचीन ऐतिहासिक पौराणिक मंदिर आश्रम व तीर्थ स्थल हैं जिनकी चर्चा गाहे-व-गाहे विभिन्न समाचार पत्रों में होती रहती है लेकिन कुठौंद से लगभग 10 किलोमीटर दूर यमुना तट पर एक ऐसा आश्रम है जहां पहुंचना अत्यधिक परेशानियों से युक्त है। वर्ष में 12 माह के आठ माह तो तमाम संकटों से जूझते हुए किसी तरह लोमस ऋषि के इस आश्रम पर पहुंचा जा सकता है लेकिन वर्षा काल के चार माह यहां पहुंचने की कल्पना करना भी बहुत कठिन है । कुठौंद से वावली रोड पर देवनपुरवा की ओर जाने वाले मार्ग पर माइनर के किनारे समानांतर बनी सड़क पर लगभग 5 किलोमीटर दूरी पर बाई और एक गेट बना है जहां से लोमस ऋषि के आश्रम के लिए ऊबड़खाबड़ कच्चा रास्ता गया है। सड़क से बीहड में लगभग दो किलोमीटर चलने के बाद भूल भुलैया रास्तों में भटकते हुए लोमस ऋषि के आश्रम पर पहुंचा जा सकता है जहां जंगल में मंगल करने की लोकोक्ति चरितार्थ करते हुए पीएसी पुलिस सेवा से निवृत ग्राम दौलतपुर निवाली प्रमोद कुमार शुक्ला ने गृहस्थ संत जीवन ग्रहण कर सपत्नी इसी आश्रम पर अपना स्थाई प्रवास कर लिया है और अपने जीवन की तमाम जमा पूंजी से इस जर्जर गुमनाम प्राचीन आश्रम को गुलजार करने का संकल्प लेकर काम भी प्रारंभ कर दिया है । दूर से तो यह आश्रम नहीं दिखता लेकिन समीप पहुंचने पर इस तरह से प्रकट होता है जैसे अंधकार में अचानक सूर्य प्रकाशित हो गया हो । जालौन से औरेया जाते समय बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे पर यमुना नदी पार करने से पूर्व दाहिनी और दूर से इस आश्रम को देखा जा सकता है । बीहड के रास्ते इस आश्रम में पहुंचने पर यहां यज्ञशाला , हनुमान जी शिवजी , मनसा देवी के अलग-अलग मंदिर , सती देवी की मठिया ,आश्रम में विभिन्न किस्म के अनेक वृक्ष, करीने से सजाई गई पुष्प वाटिका ,संत निवास आदि सुव्यवस्थित किए गए हैं।आश्रम की अद्भुत सुंदरता व वहाँ से यमुना नदी का कल-कल नाद विभिन्न बृक्षों पर बैठे अनंत आकाश में स्वच्छंद उड़ान भरते पक्षियों का कलरव, भयमुक्त मयूरों का मनमोहक नृत्य ऐसे मनोहारी दृश्य देखकर बस वही ठहर जाने का मन करता है। पीएसी से सेवानिवृत व वर्तमान में संतस्वरूप प्रमोद कुमार शुक्ला एवं मौके पर मिले श्याम प्रकाश द्विवेदी ऊमरी ने आश्रम व मंदिर के बारे में बताते हुए कहा कि रात्रि में अक्सर यहां कुछ पदचाप सुनाई देती हैं , कभी-कभी किन्ही लोगों की बुदबुदाने की आवाज भी सुनाई देती है लेकिन देखने का प्रयास करने पर यहां कुछ नहीं दिखाई देता । उन्होंने बताया की यहां यदा-कदा कुछ स्थानीय लोग आते हैं लेकिन रास्ता दुर्गम होने के कारण यहां लोगों का आना जाना बहुत मुश्किल है यदि सड़क मार्ग से इस पौराणिक ऋषि के आश्रम तक दो किलोमीटर का रास्ता पक्का बनवा दिया जाए तो अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है । लोमस ऋषि के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि यह स्थान विभिन्न पुराणों में वर्णित महान संत लोमस ऋषि की तपोस्थली है । यहां पर तपस्या करके महर्षि लोमस ने भगवान शिव से वरदान प्राप्त किया कि मेरे शरीर में जितने लोम (रोम या बाल) है उतने कल्पों तक मैं जीवित रहूं । मान्यता है की एक कल्प (चार युग) सतयुग,त्रेता,द्वापर,कलियुग की समाप्ति पर लोमस ऋषि के शरीर का एक बाल गिर जाता है और अभी तक उनके शरीर से दाहिने पैर के घुटने तक के ही रोम क्षय हुए हैं इस प्रकार लोमस ऋषि अमर ना होते हुए भी अमर जैसे ही हो गए । प्रथम तुलसीकृत रामचरितमानस (रचना काल सन 1574) में सर्वप्रथम लोमस ऋषि के शिष्य भुशुण्डि जी की कथा का वर्णन है।सतयुग में भुशुण्डि नामक एक ब्राह्मण सगुण रूप की उपासना करते थे, इसके गुरु लोमश ऋषि थे, अध्ययन-क्रम में गुरु शिष्य में सगुण-निर्गुण पर वाद-विवाद हो गया इसी बात पर लोमश ऋषि क्रोधित हो उठे और बोले, काक की तरह काँव काँव कर के गुरू से विवाद करता है, जा चांडाल मैं तुझे श्राप देता हूं कि तू काक (कौआ) योनि को प्राप्त कर, तब से भुशुण्डि काकभुशुण्डि बन गए। भयंकर श्राप देने के बाद भी वह शिष्य शांत बैठा रहा, लोमश ऋषि को इस बात का आश्चर्य हुआ तो उन्होंने पूछ ही लिया कि काक की योनि तो निम्न मानी गई है और मेरे द्वारा इस तरह का श्राप दिए जाने पर भी तुम विचलित नहीं हुए। इसका रहस्य क्या है? तब शिष्य भुशुण्डि ने हाथ जोड़ कर कहा कि इसमें आश्चर्य और रहस्य जैसी कोई बात नहीं है जो होता है प्रभु की इच्छा से ही होता है, फिर मैं क्यों चिंता करूँ? यदि मैं काक बना तो उसमें भी मेरा कोई कल्याण ही छिपा होगा।