मुझे मुफ़्त में कोई भी चीज़ लेने की आदत नहीं है, मुझे चुनौतियां पसंद हैं : उपराष्ट्रपति

मुझे मुफ़्त में कोई भी चीज़ लेने की आदत नहीं है.......... मुझे चुनौतियां पसंद हैं; संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करना प्राथमिक जिम्मेदारी - उपराष्ट्रपति

यदि कोई अपराध आम जनमानस को झकझोरता है, तो उस पर पर्दा नहीं डाला जा सकता; अपराध का समाधान समाधान कानून के अनुसार ही होना चाहिए- उपराष्ट्रपति

राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे गरिमापूर्ण और संवैधानिक पदों पर टिप्पणियाँ चिंतन और मनन का विषय- उपराष्ट्रपति

संविधान टकराव की नहीं, बल्कि संवाद, विचार-विमर्श और स्वस्थ बहस की अपेक्षा करता है- उपराष्ट्रपति

प्रजातंत्र की असली परिभाषा है अभिव्यक्ति और वाद-विवाद- उपराष्ट्रपति

मुझे न्यायपालिका के प्रति अत्यंत सम्मान है; सभी संस्थाओं को आपसी तालमेल से काम करना चाहिए- उपराष्ट्रपति

सबसे खतरनाक चुनौती वह है जो अपनों से मिलती है, जिसकी हम चर्चा नहीं कर सकते- उपराष्ट्रपति

उपराष्ट्र्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने आज कहा कि, “ मुझे चुनौतियाँ पसंद हैं और संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करना हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी है। इसमें कोई कोताही स्वीकार नहीं की जा सकती।”

“थोड़ी देर पहले मुझे कहा, 'आपको भी मुफ़्त में [पुस्तक] नहीं मिलेगी।' महामहिम राज्यपाल आनंदीबेन पटेल जी, मुझे मुफ़्त में कोई भी चीज़ लेने की आदत नहीं है.......... सबसे खतरनाक चुनौती वह है, जो अपनों से मिलती है, जिसकी हम चर्चा नहीं कर सकते…..जो चुनौती अपनों से मिलती है, जिसका तार्किक आधार नहीं है, जिसका राष्ट्र विकास से संबंध नहीं है, जो राज-काज से जुड़ी हुई है। आप ही नहीं, मैं भी बहुत शिकार हूं, महामहिम राज्यपाल, इन चुनौतियों का मैं स्वयं  शिकार हूं, भुक्तभोगी हूं। पर हमारे सामने एक बहुत बड़ी ताकत है और हमारी ताकत है हमारा दर्शन और जिन्होंने हमें कह रखा है, जब भी कोई संकट आए, वेद की तरफ ध्यान दो, गीता, रामायण, महाभारत की तरफ ध्यान दो “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” जब भी चुनौती सामने आए, चुनौतियां आएगी। चुनौतियां ऐसी आएंगी कि आप विवशता में पड़ जाते हो और सोचते हो, दीवारों के भी कान हैं। तो उस चुनौती की चर्चा खुद को भी नहीं करते हो पर कभी भी कर्तव्य पथ से अलग नहीं हटना है”, उन्होंने आगे कहा।

लखनऊ में आज माननीय राज्यपाल श्रीमती आनंदीबेन पटेल की पुस्तक ‘चुनौतियां मुझे पसंद है’ के विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि के तौर संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि, “ लोग कई बार कहते हैं कि जनता की याददाश्त कमज़ोर होती है और सोचते हैं कि समय के साथ सब बातें भुला दी जाएंगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है। क्या हम इमरजेंसी को भूल गए हैं? बहुत समय बीत गया है, लेकिन इमरजेंसी की काली छाया आज भी हमें दिखाई देती है। यह भारतीय इतिहास का सबसे अंधकारमय काल था, जब लोगों को बिना कारण जेल में डाल दिया गया, न्यायपालिका तक पहुंच बाधित कर दी गई थी। मौलिक अधिकारों का नामोनिशान नहीं रहा, लाखों लोग जेलों में डाल दिए गए। हम इसे नहीं भूले हैं। उसी तरह हाल ही में जो पीड़ादायक घटना घटी है, मैं यह मानता हूं — और मेरा यह दृढ़ विश्वास है — कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि हर व्यक्ति तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक वह अपराधी सिद्ध न हो जाए। लोकतंत्र में निर्दोषता की एक विशेष महत्ता होती है। लेकिन कोई भी अपराध हो, उसका समाधान कानून के अनुसार ही होना चाहिए। और यदि कोई अपराध आम जनमानस को झकझोरता है, तो उस पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। मैंने इस बात को पूरी स्पष्टता से कहा है। कुछ लोगों ने मुझसे पूछा कि आप इस विषय पर इतने बेबाक क्यों हैं? मुझे बहुत प्रेरणा मिली महामहिम राज्यपाल की पुस्तक से। और मैंने यह स्पष्ट किया है कि मुझे चुनौतियाँ पसंद हैं और संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करना हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी है। इसमें कोई कोताही स्वीकार नहीं की जा सकती।”

संवैधानिक पदों पर हुई टिप्पणियों के प्रति गहरी चिंता ज़ाहिर करते हुए श्री धनखड़ ने कहा, “ हमारे संविधान में दो पद सर्वोच्च माने गए हैं — एक है भारत के राष्ट्रपति का, और दूसरा राज्यपाल का। और माननीय मुख्यमंत्री जी, वे इसलिए सर्वोच्च हैं क्योंकि जो शपथ आपने ली है, जो शपथ मैंने ली है, जो शपथ सांसद, मंत्री, विधायक या किसी भी न्यायाधीश ने ली है — वह शपथ होती है: मैं संविधान का पालन करूँगा। लेकिन द्रौपदी मुर्मू जी (राष्ट्रपति) और आनंदीबेन पटेल जी (राज्यपाल) की शपथ इससे अलग है। उनकी शपथ होती है: "मैं संविधान की रक्षा करूँगा, उसका संरक्षण और बचाव करूँगा।" और दूसरी शपथ होती है: "मैं जनता की सेवा करूंगा" — राष्ट्रपति के लिए भारत की जनता की और राज्यपाल के लिए संबंधित राज्य की जनता की। ऐसे गरिमापूर्ण और संवैधानिक पदों पर यदि टिप्पणियाँ की जाती हैं, तो वह मेरे अनुसार चिंतन और मनन का विषय है।”

संविधान द्वारा निर्मित सभी संस्थाओं के बीच समन्वय और संवाद के महत्व पर प्रकाश डालते हुए उपराष्ट्रपति ने रेखांकित किया, “ हाल के कुछ दिनों में एक घटनाक्रम हुआ है, जिस पर मैंने वक्तव्य भी दिया है और वह आपके प्रांत से भी जुड़ा हुआ है। मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि इसी प्रांत में विधायिका और न्यायपालिका के बीच सबसे बड़ा टकराव हुआ था। आप सभी इस विषय से भली भांति परिचित हैं। हमारा यह परम कर्तव्य है कि हम सुनिश्चित करें कि हमारी संवैधानिक संस्थाएं एक-दूसरे का सम्मान करें, और यह सम्मान तब और बढ़ता है जब हर संस्था अपनी सीमाओं के भीतर रहकर कार्य करती है। जब संस्थाएं एक-दूसरे का सम्मान करती हैं….  हमारा संविधान टकराव की नहीं, बल्कि समन्वय, सहयोग, संवाद, विचार-विमर्श और स्वस्थ बहस की अपेक्षा करता है। संविधान संस्थाओं के बीच संघर्ष की कल्पना नहीं करता, वह सहभागिता और संतुलन की भावना को बढ़ावा देता है।”

इसी संदर्भ में उन्होंने आगे कहा, “ सभी संस्थाओं की अपनी-अपनी भूमिका होती है। किसी एक को दूसरे की भूमिका नहीं निभानी चाहिए। हमें संविधान का सम्मान करना चाहिए – अक्षरशः, भावना में और सार में भी। और मैं पहले भी कह चुका हूँ, 140 करोड़ जनता अपनी भावना चुनाव के माध्यम से व्यक्त करती है, अपने जनप्रतिनिधियों के माध्यम से, और वही जनप्रतिनिधि जनता के मानस को प्रतिबिंबित करते हैं, और जनता उन्हें चुनावों में जवाबदेह भी बनाती है। और इसलिए मैंने आम आदमी की भाषा में कहा है कि जैसे विधायिका कोई फैसला नहीं लिख सकती, वह न्यायालय का कार्य है – उसी तरह न्यायालय कानून नहीं बना सकता। मुझे न्यायपालिका के प्रति अत्यंत सम्मान है, मैं न्यायपालिका का एक सिपाही रहा हूँ। मैंने चार दशक से भी अधिक समय वकील के रूप में बिताया है। केवल 2019 में, जब मुझे पश्चिम बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया, तब मैंने वकालत छोड़ी। मैं जानता हूँ कि न्यायपालिका में अत्यंत प्रतिभाशाली लोग हैं। न्यायपालिका का बहुत बड़ा महत्व है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था कितनी मजबूत है – यह न्यायपालिका की स्थिति से परिभाषित होती है। वैश्विक मानकों पर हमारे न्यायाधीश सर्वश्रेष्ठ में से हैं। लेकिन मैं अपील करता हूँ कि हमें सहयोग, समन्वय और सहभागिता की भावना दिखानी चाहिए। कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका – इन संस्थाओं को एकजुट होकर और आपसी तालमेल से काम करना चाहिए।”

प्रजातंत्र में अभिव्यक्ति और वाद-विवाद के महत्व पर ज़ोर देते हुए श्री धनखड़ ने कहा, “एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही गई है, जो हम सभी के लिए अत्यंत आवश्यक है। हम अपने आपको प्रजातंत्र क्यों कहते हैं? आर्थिक उन्नति, संस्थागत ढांचे का विकास, तकनीक का विस्तार — ये सब महत्वपूर्ण हैं। लेकिन प्रजातंत्र की असली परिभाषा है — अभिव्यक्ति और वाद-विवाद। अभिव्यक्ति और संवाद ही लोकतंत्र का आधार हैं। यदि अभिव्यक्ति पर अंकुश लगने लगे, तो किसी भी राष्ट्र के लिए अपने आप को लोकतांत्रिक कहना कठिन हो जाएगा। लेकिन अभिव्यक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता यदि उसके साथ वाद-विवाद न हो। यदि अभिव्यक्ति इस हद तक पहुँच जाए कि बोलने वाला यह समझे कि "मैं ही सही हूँ" और बाकी सभी परिस्थितियों में गलत हैं, उनकी बात सुनने का कोई प्रयास ही न हो — तो यह अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं, बल्कि उसका विकार बन जाता है। लोकतंत्र तभी परिभाषित होता है जब एक समग्र पारिस्थितिकी तंत्र में अभिव्यक्ति और संवाद एक साथ फलते-फूलते हैं। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। और यदि अभिव्यक्ति चरम पर पहुँच जाए लेकिन संवाद न हो, तो हमारे वेदों का जो दर्शन है — अनंतवाद, वह समाप्त हो जाएगा। और उसके स्थान पर जन्म होगा 'अहम और अहंकार' का। यह 'अहम और अहंकार' व्यक्ति और संस्था दोनों के लिए घातक हैं।”

इस कार्यक्रम के अवसर पर उपराष्ट्रपति की धर्मपत्नी श्रीमती सुदेश धनखड़, उत्तर प्रदेश की माननीय राज्यपाल श्रीमती आनंदीबेन पटेल, उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ, कैबिनेट मंत्री श्री सुरेश खन्ना एवं अन्य गणमान्य अतिथि मौजूद रहे।

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Journalist Anil Prabhakar

Editor UPVIRAL24 NEWS